हरियाणा का एग्जिट पोल
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हरियाणा के विधानसभा चुनाव के एग्जिट पोल, हैरान करने वाले नहीं हैं। चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों की जो राय देखने को मिली थी, अब एग्जिट पोल में भी कुछ वैसे ही नतीजे देखने को मिल रहे हैं। अधिकांश एग्जिट पोल के नतीजों में कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने के लिए पूर्ण बहुमत मिलता हुआ दिखाई दे रहा है। हालांकि 8 अक्तूबर को वोटों की गिनती के बाद ही सियासत की सही तस्वीर सामने आ सकेगी। राजनीतिक जानकारों का कहना है, एग्जिट पोल में मनोहर लाल खट्टर सरकार के खिलाफ हाई ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ पर मुहर लग गई है। भाजपा ने चुनाव प्रचार में खर्ची-पर्ची व भ्रष्टाचार खत्म करने का दावा किया था, लेकिन इन कामों की चमक भी ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ के आगे फीकी पड़ गई।
बता दें कि रिपब्लिक पी-मार्क के सर्वे के अनुसार, हरियाणा में भाजपा सत्ता से बाहर होती नजर आ रही है। भाजपा को 90 सीटों में से 27-37, कांग्रेस को 51 से 61 तो अन्य के खाते में तीन से छह सीट मिलने का अनुमान लगाया गया है। रिपब्लिक मैट्रिज के मुताबिक, भाजपा को 18 से 24, कांग्रेस को 55-62 तो अन्य के खाते में दो से पांच सीट आती दिख रही हैं। पीपुल्स पल्स का एग्जिट पोल बताता है कि भाजपा को 20-32 सीटें तो कांग्रेस को 49-61 सीटें आती हुई दिख रही हैं। जजपा गठबंधन को एक, इनेलो को दो से तीन तो अन्य के खाते में तीन से पांच सीट मिलती नजर आ रही हैं।
सी वोटर एक्सिट पोल में हरियाणा में इस बार भाजपा को करारा झटका लगता हुआ दिखाई दे रहा है। एजेंसी ने भाजपा को 27, कांग्रेस को 57 और अन्य को छह सीट मिलने का अनुमान जताया है। सी वोटर के एग्जिट पोल ने कांग्रेस के पक्ष में 43.8 प्रतिशत वोट बताए हैं। भाजपा को 37 प्रतिशत वोट मिले हैं। गत चुनाव के मुकाबले इस बार भाजपा के पक्ष में लगभग एक फीसदी वोटों की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन सीटों के मामले पार्टी पिछड़ गई है। सी वोटर ने कांग्रेस के पक्ष में 50 से 58 सीटें बताई हैं। भाजपा को 20-28 सीटें मिलती दिख रही हैं।
प्रदेश की राजनीतिक के जानकार रविंद्र कुमार बताते हैं, एग्जिट पोल में हैरान करने वाला कुछ भी नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता हुआ दिखाई दे रहा है। एग्जिट पोल के नतीजों के मुताबिक, भाजपा को मनोहर लाल सरकार के साढ़े नौ वर्ष की ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ ले डूबी है। ऐसा नहीं है कि खट्टर सरकार ने कुछ काम नहीं किया था। भाजपा ने दावा किया था कि प्रदेश में भूपेंद्र हुड्डा सरकार के दौरान नौकरी के लिए शुरु हुआ खर्ची व पर्ची का दौर, खट्टर सरकार में खत्म किया गया। भ्रष्टचार पर नकेल कसी गई। भाजपा के लिए ये दो बड़े मुद्दे, चुनाव में फायदे का सौदा बन सकते थे। भाजपा, चुनाव में इन्हें भुना नहीं सकी।
हुड्डा सरकार की एक खासियत यह थी कि उसमें सभी लोगों की सुनी जाती थी। चाहे कर्मचारी हो या कार्यकर्ता, किसी न किसी स्तर पर उसकी बात को तव्वजो मिलती थी। प्रदेश के लोग, दिल्ली और चंडीगढ़ स्थित मुख्यमंत्री आवास पर पहुंचते थे। खट्टर सरकार ने एकाएक इस पहल को बंद कर दिया। आम लोगों का सीएम से मिलना, बहुत मुश्किल हो गया। यहां तक कि विधायकों और मंत्रियों का यह दर्द सामने आया था कि खट्टर सरकार में उनके काम नहीं हो रहे। उनके कहने से किसी कर्मचारी का तबादला तक नहीं होता था। अगर ऐसा कोई नोट आगे पहुंचता तो सीएम दफ्तर से साफतौर पर कह दिया जाता कि ये अधिकार केवल सीएम साहब के पास है। मंत्रियों और विधायकों को यह शिकायत भी रही कि अफसर उनके कहने से कोई काम नहीं करते। यही बातें खट्टर सरकार की ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ में जुड़ती रहीं।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को खट्टर सरकार की ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ का अहसास हो चुका था। प्रदेश की दस में से पांच सीटें कांग्रेस ने भाजपा से छीन ली। खट्टर को बदलकर नायब सैनी को सीएम की कुर्सी पर बैठाना, ये निर्णय भी भाजपा के काम नहीं आ सका। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को प्रदेश के 25 फीसदी जाट समुदाय के एकतरफा वोट मिले थे।कांग्रेस को दलित समुदाय का समर्थन भी मिला। इसके बाद पार्टी ने नई सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाया। जाट और गैर जाट को सामने रख चुनावी रणनीति बनाई गई। रविंद्र कुमार बताते हैं, अगर ध्यान दें तो वोटिंग से 25 दिन पहले तक कांग्रेस पार्टी बहुत आगे बताई जा रही थी। बीच में कुमारी शैलजा और दलित का मुद्दा उठाकर भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली।
यह एक ऐसा मुद्दा था, जो कांग्रेस पार्टी को टेंशन दे गया था। नतीजा, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार के आखिर तीन चार दिन मोर्चा संभाला। इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ‘दलित’ मुद्दे से परेशान था। पार्टी ने इसकी काट के लिए वोटिंग से महज दो दिन पहले भाजपा नेता अशोक तंवर को कांग्रेस ज्वाइन करा दी। तंवर पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष रहे थे। वे प्रदेश में एक अहम दलित नेता रहे हैं।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि 2014 और 2019 में भाजपा को गैर जाटों के भारी संख्या में मत मिले थे। बाद में जिस तरह से जाटों ने भाजपा से दूरी बनाई, उस कड़ी में गैर जाट समुदाय के लोग भी भाजपा से छिटकने लगे। जो शिकायत जाटों को थीं, कुछ वही शिकायत गैर जाटों को भी रहीं। बतौर मुख्यमंत्री के तौर पर खट्टर की छवि एक कठोर प्रशासक वाली रही है। उन्होंने सार्वजनिक स्थल पर किसी पुरुष और महिला को डांटने से गुरेज नहीं किया। किसान आंदोलन के बाद भाजपा नेताओं के लिए गांवों में घुसना मुश्किल हो गया था। उसके बाद पहलवानों के आंदोलन ने भी भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। तब भाजपा नेतृत्व यह सोचकर निश्चिंत था कि उसका कैडर वोट तो गैर जाट है। प्रदेश में गैर जाटों की आबादी 75 प्रतिशत है। ऐसे में भाजपा ने किसान, पहलवान और अग्निवीरों के आंदोलन को तव्वजो नहीं दी। सीएम नायब सैनी ने अपने सरकारी के आवास के दरवाजे लोगों के लिए 24 घंटे खोल दिए, लेकिन खट्टर सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा, इस पहल को बढ़त नहीं दिला सका।
लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही हरियाणा की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला था। मनोहर लाल को हटाकर नायब सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया। जजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया गया। इस बदलाव के पीछे सबसे बड़ी वजह, प्रदेश में खट्टर सरकार को लेकर लोगों में ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ रही है। कांग्रेस पार्टी ने भाजपा सरकार के प्रति लोगों में पनपी ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ का भरपूर फायदा उठाया। कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में एक मजबूत प्लेटफार्म तैयार हो गया। लोकसभा चुनाव में भाजपा को पांच सीटों पर हार का सामना करना पड़ा।
विधानसभा चुनाव में भाजपा पुराने ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के फार्मूले पर लौट आई। लोकसभा चुनाव में मिले वोटों का विश्लेषण किया गया तो सामने आया कि भाजपा को जाट समुदाय के वोट नहीं मिले थे। चूंकि प्रदेश में गैर जाट मतदाता, जो कुल आबादी का लगभग 75 प्रतिशत हैं, भाजपा ने उन पर ही फोकस करने का निर्णय लिया। ब्राह्मण समुदाय से आने वाले मोहनलाल बड़ौली को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी गई। विधानसभा चुनाव में भाजपा, गैर जाट वोटरों पर ही फोकस करती रही। मौजूदा समय में प्रदेश के मुख्यमंत्री नायब सैनी, पिछड़े वर्ग से आते हैं तो वहीं अब पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष मोहनलाल बड़ौली, ब्राह्मण समुदाय से हैं। एग्जिट पोल में ये समीकरण काम आते हुए नहीं दिख रहे।